मन के भावों को शब्दों में पिरोने की कोशिश
प्रेम तुम्हारी मजदूरी में।
पहले मिट्टी, फिर ईंट, फिर ख़ाक बने,
सारी दुनिया के सितम झेले हैं सिर्फ तुझे खुश करने के लिए।
पहले जले, फिर बुझे, फिर राख़ बने,
::-- विराज वर्मा
कभी उसकी गली से, मैं गुज़रकर देख लेता हूँ।
ज़रा आगे जाके घर से, मैं मुड़कर देख लेता हूँ।
कभी भी वो दिखेगी ना मुझको मालूम है फिर भी।
युहीं शब्दों में उसको मैं लिखकर देख लेता हूँ।